Wednesday, October 25, 2017

433. मृतपशु भी जो स्पर्श किया (मुक्तक)

433. मृतपशु भी जो स्पर्श किया (मुक्तक)

मृतपशु भी जो स्पर्श किया, हम तुम्हरी खाल उतारेंगे।
नंगाकर   पीटेंगे    तुमको,   घूसे  -  डंडों   से   मारेंगे।
कपड़े,  पहनावों,  नामों  से,  हर  एक  विधर्मी  छाँटेंगे।
कुर्सी  खातिर  हम  भारत  को, धर्मों-जातों  में बाँटेंगे।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
25.10.2017
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Saturday, October 21, 2017

432. चाँद निहारे चाँद को (कुण्डलिया)

432. चाँद निहारे चाँद को (कुण्डलिया)

चाँद  निहारे   चाँद   को,   ले  उमंग  विश्वास।
एक  गगन  के  पास  है,  एक  धरा के  पास।
एक धरा  के पास,   हास  अधरों   पर  साजे।
छलक  रहा   माधुर्य,  देह   लावण्य   विराजे।
तिमिर रहा  ललचाय, खो रहे  सुध-बुध  तारे।
कर  सोलह  श्रृंगार,  चाँद  जब  चाँद  निहारे।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
31.10.2017
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Thursday, October 19, 2017

431. क्यों नहीं सबके लिए (मुक्तक)

कभी-कभी यह मन कई प्रश्न करने लगता है। जैसे-हाड़तोड़ मेहनत करने और हर वर्ष लक्ष्मी माँ की पूजा-अर्चना करने पर भी उनकी कृपा गरीबों, किसानों और मजदूरों को  क्यों प्राप्त नहीं होती। किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम, मजदूरों को मज़दूरी क्यों नहीं मिलती। क्यों आलू, प्याज, टमाटर किसान के पास होता तो एक रुपया किलो में भी नहीं बिक पाता जबकि वही शहर में पहुँचकर पचासों रुपया किलो बिकता है।

जहां एक तरफ हर वर्ष हजारों टन खाद्यान्न गोदामों में सड़ जाता है वहीं दूसरी तरफ मेहनतकश लोग जो इस अन्न को पैदा करते हैं, वे और उनके बच्चे भूख से तड़पकर मरते रहते हैं। जब प्रभु अंतर्यामी, त्रिकालदर्शी, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, अविनाशी है, तो वह इनकी सुध क्यों नहीं लेता उसे किसका भय। उसे रुपयों-पैसों, धन-दौलत, गहनों आदि के संचय की क्या आवश्यकता?

जिन्हें इस सबसे लाभ नहीं हो रहा, उन्हें अपने अन्तरपट खोलने की जरूरत है। सोचो, कहीं कुछ तो गड़बड़ है।
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431. क्यों नहीं सबके लिए (मुक्तक)

क्यों नहीं  सबके लिए,  शुभ  हो  रही  दीपावली।
क्यों  विषमता  देश  में  चहुँओर  है  फूली-फली।
ये बधाई  आपकी  शुभकामना  किस  काम की।
भूख, भय, आतंक, तम से जब घिरी है हर गली।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
19.10.2017
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430. बातें देखीं भाषण देखे (मुक्तक)

430. बातें देखीं भाषण देखे (मुक्तक)

बातें   देखीं,  भाषण  देखे,  देखा  है'  तुम्हारे  शब्दों  को।
प्रतिदिन  नंगा  होते   देखा,  निर्दोष   विचारे  शब्दों  को।
शब्दों की अपनी इज्जत है,  शब्दों की अपनी गरिमा  है।
हे  झूठेश्वर,  हे  जुमलेश्वर, अब  रखो  किनारे  शब्दों  को।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
19.10.2017
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Tuesday, October 10, 2017

429. जो प्रीत में हिय को हार गया (मुक्तक)

429. जो प्रीत में हिय को हार गया (मुक्तक)

जो प्रीत में हिय को हार गया, क्या शोक करे क्या हाथ मले।
उछरन की चाह करे क्यों वो, जो प्रेम  के सिंधु में डूब चले।
विरहानल को नहिं जान सके, बेशक दीपक दिन-रात जले।
अनुराग  का  रोग न  छूटत  है, चाहे  छूटें तन  से प्राण भले।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.10.2017
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Sunday, October 08, 2017

428. जा प्रेम की राह बड़ी सूधी (मुक्तक)

428. जा प्रेम की राह बड़ी सूधी (मुक्तक)

जा प्रेम  की  राह   बड़ी  सूधी,   जामें  चतुराई  नाहिं चले।
हाँ  करिके  पग  पीछे  न धरें,  जाने  को  जाए  जान भले।
तुम कौन सा प्रेम को पाठ पढ़ो, सौ लेत हौ, देत में एक खले।
हाँ करवावौ, खुद नाहिं करौ, यही देख जिया दिन-रात जले।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.10.2017
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जा-यह; सूधी-सीधी; जामें- इसमें;

427. तेरे सम्मुख आ प्रिये (कुण्डलिया)

427. तेरे सम्मुख आ प्रिये (कुण्डलिया)

तेरे  सम्मुख  आ  प्रिये,  किसको  रहता  होश।
विश्व  मोहिनी  रूप  यह,  कर   देता  मदहोश।
कर देता  मदहोश,  छीन लेता  सब  सुध-बुध।
रंग -  रूप,  लावण्य,  देख   धरती  है   बेसुध।
जड़-चेतन, आकाश, निहारे जब से  यह मुख।
किंकर्तव्यविमूढ़,    हुए   सब     तेरे   सम्मुख।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.10.2017
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Saturday, October 07, 2017

426. चली है पिय से (महाश्रृंगार छंद)

426. चली है पिय से (महाश्रृंगार छंद)

चली है  पिय  से  मिलने आज,
कामिनी   कर  सोलह  सिंगार।
अधखिले  अधरों  पर  मुस्कान,
लिए  नयनों   में   स्वप्न  हजार।

सिंधु   सम   गहरे   दोनों   चक्षु,
लगे भृकुटी ज्यों खिची कमान।
नथनियाँ    चूमे     दोऊ    होंठ,
स्वर्ण झुमकों से शोभित  कान।

लगे  ग्रीवा  कदली   की  भाँति,
श्वेत मोतिन का  गल बिच हार।
शिखर  दो   बीच   मुक्त  प्रदेश,
वक्ष  गर्वित   हो   लिये  उभार।

कमर  केहर  सम,  कोमल गात,
चले  नव   हिरनी   जैसी  चाल।
करधनी    दीखे     है   मदमस्त,
और   पायल   भी   है  वाचाल।

विश्व  को   मोहित   करने   हेतु,
अवतरित  हुई  धरा  पर  आज।
लिए  तन, मन  में   रूप,  उमंग,
हुश्न,   तरुणाई,   यौवन,  लाज।

रणवीर सिंह (अनुपम)
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Tuesday, October 03, 2017

425. है बड़ी मुश्किल डगर (मुक्तक)

है बड़ी मुश्किल डगर यह प्यार की।
सच  कहूँ  तो  राह   है  अंगार  की।
जल्दबाजी  से  यहाँ  मत  काम ले।
सोच ले  गलती न कर  इकरार की।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
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Sunday, October 01, 2017

424. दिल लगाना छोड़ दे (गीत)

424. दिल लगाना छोड़ दे (गीत)

मनचलों को देखकर तू,
मुस्कराना छोड़ दे।
हर किसी से इस तरह,
आँखे लड़ाना छोड़ दे।

तन ते'रा अँगड़ाइयाँ,
लेने लगा है आजकल,
दौर ये फिसलन भरा है,
होश में रह तू सँभल।
कुछ नहीं तुझको मिलेगा,
फक्कड़ों की प्रीत से,
सिर्फ जिल्लत ही मिलेगी,
बेमुरव्वत मीत से।

ऐरे-गैरे हर किसी से,
दिल लगाना छोड़ दे।

इस तबस्सुम, इस हँसी पर,
जान जाती है निकल,
देखकर  रंग - रूप   तेरा,
हो रहा अंतर विकल।
बावले  कइयों  हुये  हैं,
इस तेरे परिहास पर।
सैकड़ों ग़ाफिल हुए और,
मिट गए इस हास पर।

इस तरह हर बात पर तू,
खिलखिलाना छोड़ दे।
 
झील के जल में उतरकर,
यूँ उठा-बैठा न कर,
रेशमी भीगे हुए आँचल,
को युँ ऐंठा न कर।
तू मिली जब से मुझे,
दुश्मन हजारों बन गए,
बीसियों मर खप गए हैं,
बीसियों जल-भुन गए।

दिलजलों का इस तरह तू,
दिल जलाना छोड़ दे।

रणवीर सिंह (अनुपम)
01.10.2017
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