इकला पति ही ढो रहा, पत्नी का शव आज।
Sunday, August 28, 2016
एक दोहा और
इकला पति ही ढो रहा, पत्नी का शव आज।
Saturday, August 27, 2016
278. तुम्हारी चाह में कितनो (मुक्तक)
तुम्हारी चाह में कितनो को' भटकते देखा।
गुलों के दिल में एक खार खटकते देखा।
उस समय चाँद ने, जानी है हकीकत अपनी।
जब तुम्हें गाल से, ज़ुल्फों को झटकते देखा।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
Saturday, August 20, 2016
277. सखी री लागो सावन मास (श्रृंगार छंद)
श्रृंगार छंद
सखी री लागो सावन मास।
नहीं कुछ उन बिन आवे रास।
पड़े जब तन पर जल बौछार।
लगे ज्यों बरसत हों अंगार।
विरह की अग्नि जलाती गात।
धधकती हियरा में दिन - रात।
छोड़कर, प्रियतम गए विदेश।
नहीं आया कोई सन्देश।
करे है पिउ-पिउ बन में मोर।
कुयलिया रह - रह करती शोर।
विरह से व्याकुल हूँ बेहाल।
पिया नहिं जानत मेरो हाल।
काह नहिं लेते हो सुधि आय।
रहे पाती से दिल बहिलाय।
बहे नयनों से निशदिन नीर।
सजन कब आय हरोगे पीर।
लगा यह कैसा मुझको रोग।
सहा नहिं जाता और वियोग।
मिलन को मनवा रहत अधीर।
धरूँ अब कैसे आली धीर।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
276. छेड़िये मत आप यूँ
मापनी-212 2212 212 2212
छेड़िये मत आप यूँ जज्बात को।
और सह सकता नहीं आघात को।
रहनुमा जिसको समझता मैं रहा,
उसने ही लूटा मेरी बारात को।
पूँछिये मत साथियो मेरी व्यथा,
क्या बताऊँ क्या हुआ उस रात को।
माँगने से हक़ मिला करता नहीं,
आइये हम दें बदल हालात को।
इक तरफ भोजन फिके तालाब में,
इक तरफ बच्चे बिलखते भात को।
मान लूँ कैसे तुम्हें मालूम ना,
जानता सारा जहाँ जिस बात को।
हैं बहुत मुश्किल यहाँ पहिचानना,
आदमी को, आदमी की जात को।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
Friday, August 19, 2016
275. सच कहता हूँ मात (रोला)
रोला छंद
सच कहता हूँ मात, नहीं कुछ आता मुझको।
माता होउ सहाय, पुत्र यह ध्याता तुझको।
शांति चित्त माँ करो, दुखों से मुझे उबारो।
तुम हो तारणहार, मात निज सुत को तारो।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
Thursday, August 18, 2016
274. तूँ जहाँ भी हो बहन (मुक्तक)
गीतिका छंद -2122 2122 2122 212
तूँ जहाँ भी हो बहन, किरपा करें दामोदरा।
विघ्न पथ से दूर हों, बाधा हरें लंबोदरा।
दूर दुख तुझसे रहें, प्रभु से यही प्रार्थना।
लाड़ली तूँ खुश रहे, मेरी यही है कामना।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
Sunday, August 14, 2016
273. अंग्रेजी तोपों के सम्मुख (मुक्तक)
लावणी छंद
अंग्रेजी तोपों के सम्मुख, जिनने सीना तान दिया।
आजादी की खातिर जिनने, निज प्राणों का दान दिया।
उन मतवाले वीरों की उस, कुर्बानी का ध्यान रहे।
हाथ तिरंगा औ होंठों पर, भारत का जयगान रहे।।
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****
272. ताकती हर आँख को अब
ताकती हर आँख को अब, राख होना चाहिए।
हिन्द का हर एक दुश्मन, ख़ाक होना चाहिए।
ये लचीलापन हमारा, ले गया कांधार तक।
एक गलती के लिए, जाना पड़ा गांधार तक।
हो गया संसद पे' हमला, पर रहे खामोश हम।
आज तक चेते नहीं हैं, नींद में बेहोश हम।
ताज भी छोड़ा नहीं, छोड़ा न अक्षरधाम को।
समझता कमजोरियत रिपु, शांति के पैगाम को।
है जरूरत अब पड़ोसी, को कड़े संदेश की।
धैर्य की भी एक सीमा, है हमारे देश की।
अब जरूरी हो गया है, नाश हो इस पंक का।
खात्मा अब है जरूरी, हिन्द से आतंक का।
किस तरह से राजनेता, हो रहे धनवान यूँ।
बाहुबलियों डाकुओं की, बढ़ रही क्यों शान यूँ।
इन सभी की इस तरक्की,का भी' पर्दाफाश हो।
भ्रष्टता, कालाबज़ारी, का यहाँ से नाश हो।
धार्मिक उन्माद का विष, भर रहे हैं रक्त में।
कौन सा अवगुण नहीं है, धर्मगुरुओं, भक्त में।
शत्रु हो जो भी वतन का, वो नहीं अब माफ हो।
है जरूरी हर किसी के, साथ अब इंसाफ हो।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
271. मेंहदी काजल से कहे (कुण्डलिया)
कुण्डलिया छंद
मेंहदी काजल से कहे, काहे होत अधीर।
तेरी मेरी एक गति, एक हमारी पीर।
एक हमारी पीर, सजन आ इसे हरेंगे।
लखकर, छूकर, चूम, दर्द सब दूर करेंगे।
यह सुन माहवर कहे, हो रही काहे पागल।
मन मत करो मलीन, अरे ओ मेंहदी काजल।
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****
Wednesday, August 10, 2016
270. प्रेम है आराधना (मुक्तक)
मापनी- 2122 2122, 2122 212
(गीतिकाजी गीतिकाजी, गीतिकाजी गीतिका
गीतिका छंद
प्रेम है आराधना, अधिकार मैं कैैसे कहूँ।
दो तनों की वासना को प्यार मैं कैसे कहूँ।
पश्चिमी उन्मुक्तता से कौन सा मैं ज्ञान लूँ।
छल-कपट को प्रीत का, आधार कैसे मान लूँ।
मुक्तक
प्रेम है आराधना अधिकार मैं कैैसे कहूँ।
दो तनों की वासना को प्यार मैं कैसे कहूँ।
त्याग, निष्ठा और निश्छल भावना को छोड़कर।
छल-कपट को प्रीत का आधार मैं कैसे कहूँ।
रणवीर सिंह (अनुपम)
Sunday, August 07, 2016
269. वो मर गए तो क्या हुआ
हम मर गए तो क्या हुआ, वो बच गए तो क्या हुआ।
मुझसे बदतर हाल यारो, है यहाँ सब का हुआ॥
डर के' आगे सच को' कहने, की बची हिम्मत कहाँ,
आदमी अब तो यहाँ पर, इस कदर सहमा हुआ॥
राहजन से ये पुलिस, काहे बचाएगी हमें,
हर कदम पर खुद इसी का, जाल है फेंका हुआ॥
बेगुनाही अब यहाँ पर, किस तरह साबित करूँ,
आज जब मुंसिफ ने खुद को, है यहाँ बेचा हुआ॥
अब अदालत पर भरोसा, बात बेमानी लगे,
फैसला देखा है' हमने, पहले' से होता हुआ॥
जो नशाबंदी का मसला, ले गया हर मंच पर,
आदमी वो खुद नशे में, आज है डूबा हुआ॥
चाहिए होना था जिसको, बंद कारागार में,
शक्स वो संसद भवन में, है मिला बैठा हुआ॥
बाद मरने के यहाँ, कहते हैं उसको जीनियस,
जिसको देखा जिंदगी भर, फ़ेल ही होता हुआ॥
करके तिकड़बाजियाँ जो, जिंदगी जीता रहा,
लोग कहते महात्मा है, वो बहुत पहुँचा हुआ॥
जिसके हाथों अब तलक, हर रोज ही लुटता रहा,
फिर न जाने इश्क क्यों, 'अनुपम' उसी से है हुआ॥
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****