Friday, June 26, 2015

100 जैसे ताजा श्वेत कमल हो

जैसे  ताजा श्वेत कमल हो।
प्रेमगीत या एक ग़ज़ल हो ।।
 
धवल दूधिया सा तन चमके,
जैसे कोई ताजमहल हो ।।
 
सारी सृष्टि लगे है मिथ्या,
तुम्ही असल हो, तुम्ही असल हो।।
 
तेरे सम्मुख सब निर्बल हैं,
तुम बलशाली, तुम्हीं सबल हो।।
 
जीवन एक मरुस्थल तपता,
बदली जैसी तुम शीतल हो।।
 
इक पल लगती अमृत जैसी,
दूजे पल में लगे गरल हो।।
 
बहुत समझना चाहा 'अनुपम',
लेकिन इतनी कहाँ सरल हो?
 
रणवीर सिंह (अनुपम)
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गरल - जहर

Sunday, May 17, 2015

99. कोई आकर आज कोई आकर आज बताए, बचपन बेबस इतना क्यों है?   जन्म से पहले, बाद जनम के, जीवन दुष्कर इतना क्यों है? बात नहीं है उन बच्चों की, जन्मे हैं जो महलों में, बात यहाँ मैं करता उनकी, जन्में जो खपरैलों में, बात यहाँ पर उनकी भी नहिं, जिनके तन पर मलमल है, बात यहाँ पर उनकी जिनको, केवल माँ का आँचल है,  एक को दूध, दवाई, भोजन, एक कुपोषण सहता क्यों है? कोई आकर आज बताए...1 भूखी माँ के संग उदर में, भूखा रहना पड़ता है, जिस तन से है उदगम होना, उससे लड़ना पड़ता है, खाली उदर अजन्मे शिशु को कब तक देगा संरक्षण, जर्जर तन किस भाँति भ्रूण का, कर सकता समुचित पोषण, यह मत पूछो इस हालत में, हृदय बेकल माँ का क्यों है?  कोई आकर आज बताए....2 हाँफ -हाँफकर लगी हुई है, भोर से सारा काम करे , तन-मन की पीड़ा से बोझिल, फिर भी न आराम करे, प्रसव के दिन भी इस माँ को, प्रसव का है वक्त नहीं, और देश में इस प्रसव को, मिले सुरक्षित जगह नहीं, चलती बस में, फुटपाथों पर, जन्म हमारा होता क्यों है? कोई आकर आज बताए....3 जियें कब तलक अह जग वालों, ऐसे अधपेटे रहकर, हाय गरीबी कब तक मेरा, खून पिएगी हँस-हँसकर,  दूध नहीं निकला करता है, अह जग सूखे स्तन से, कब तक शिशु पोषण पाएगा, माँ के इस पिंजर तन से, रोज रात को माँ से लिपटा, बच्चा भूखा सोता क्यों है? कोई आकर आज बताए....4 हम ही पंचर लगा रहे हैं, हम ही रिक्शा खींच रहे,  महानगर के चौराहों पर, भीख माँगते दीख रहे, हमको पाओगे ढाबों पर, हम ही मिलें दुकानों में, कूड़ा बीनत मिल जाएंगे, तुमको कूड़ेदानों में, प्रशासन को सिर्फ हमेशा, आँख मूँदना आता क्यों है? कोई आकर आज बताए....5 बीड़ी के इन कारखानों में, तकलीफ़ों को झेल रहा,  आतिशबाजी के संग बचपन, बारूदों से खेल रहा, कलम छीन कर इन हाथों में, क्यों बंदूकें थमा रहे? मेरे नन्हें नाजुक तनको, क्यों आतंकी बना रहे,  आज आचरण इंसानों का, पशुता से भी नीचा क्यों है ? कोई आकर आज  बताए....6 रणवीर सिंह 'अनुपम', मैनपुरी (उप्र) *****


98 आज के हालात में सिर्फ

आज के हालात में, सिर्फ यही चारा है,
छीन लो हक अपना, लोगो जो तुम्हारा है॥
 
मेरी इस आवाज़ को, कत्ल कर नहीं सकते,
मेरी ये आवाज़ तो, क्रांति का नगारा है॥
 
चुनके जिसे भेजा था, काम कुछ करने को,
मेरा दुर्भाग देखो, निकला वो नकारा है॥
 
खर्च रुपया करके, काम चार आने का,
कैसी ये तरक्की है, कैसा ये नारा है॥
 
शोलों को न भड़काओ, मेरा घर जलाने को,
मेरे ही बगल में तो, देखो घर तुम्हारा है॥
 
सब्र को जो बांधे हैं, उसकी एक सीमा है,
दरिया जब उफनेगा, बचता न किनारा है॥
 
बाद तेरे जाने के, दुनियाँ चल नहीं सकती,
ऐसा कभी होता है नहीं, भ्रम ये तुम्हारा है॥
 
ऐसे मत इतराओ, रूप-औ-जवानी पे,
दोनों छोड़ जाएंगे, इनका क्या सहारा है॥
 
ऐसी क्या है मजबूरी, ऐसी क्या परेशानी,
जिसके लिए पर्दे पर, जिस्म ये उघारा है॥
 
ऐसे मत तन को दिखा, शान कम होती है,
मेरी तो नशीयत है, फैसला तुम्हारा है॥
 
आपको भरोसा नहीं, मेरी वफादारी पे,
फिर भी हर मुश्किल में, आपने पुकारा है॥
 
नारियों की इज्जत तो, हमें जां से प्यारी है,
जिसके लिए पुरुषों ने, पुरुषों को मारा है॥
 
बात रहनुमाओं की, तीर जैसी चुभती है,
रोज़ तीस रुपयों में, होता क्या गुजारा है॥
 
इनको कोई मतलब न, मेरी ज़िंदगानी से,
बातें ये भड़काऊ, इसी का इशारा है॥
 
मेरी ये मजलूमी, उनका दिया तोहफा है,
कुछ हाथ उनका है, और कुछ हमारा है॥
 
बातें तो अमन की हैं, लहजा भड़काऊ है,
आपकी बातों में, जंग का इशारा है॥
 
आपकी फितरत से, खूब हम वाकिफ हैं,
आपका रचाया हुआ, खेल ये सारा है॥
 
आप जिसे छू लेतीं, सोना बन जाता है,
आज तो बुलंदी पर, आपका सितारा है॥
 
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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97 देगा डुबा गुरूर और ये जाम आपको

देगा डुबा गुरूर और ये जाम आपको,
छोड़ेगा करके एक दिन, नाकाम आपको॥
 
दौलत को पाया आपने, शोहरत को पा लिया,
फिर भी न रास आ रही, ये शाम आपको॥
 
दुनियाँ जो तुम से कह रही, वो मत कराइए,
ये ही करेंगे एक दिन, बदनाम आपको॥
 
लोगों की बात सुनके, न तोहमत लगाइए,
शोभा नहीं ये देता, इल्ज़ाम आपको॥
 
हर रोज़ सुबह शाम को, ताने न दीजिये,
क्यों इस कदर ये भा रहा, कोहराम आपको॥
 
अच्छा है क्या, बुरा क्या, इतना तो सोचिए,
मिलते हैं झूठे किसलिए, पैगाम आपको॥
 
होता नहीं गुनाह है, माँ-बाप की फिकर,
करना विरोध ठीक न, खुले आम आपको॥
 
कम खाकर जीना ज़िंदगी, मेरी फिलोसफ़ी,
मेरी फिलोसफ़ी से, क्या काम आपको॥
 
यह सोचकर के मैंने, आधी खुराक की,
कुछ तो मिलेगा किचन में, आराम आपको॥
 
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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96 बनकर माँ, टीवी पे कहती

बनकर माँ, टीवी पे कहती, पहन बेटी नेपकिन,
ताकि तेरा ध्यान पर्चे के सवालों पर रहे,
एक प्राकृतिक क्रिया को, यूं दिखाया जा रहा,
नेपकिन का नाम ही, उसके ख्यालों पर रहे।।
 
दूसरी कहती कि, इसको पहन मेरी लाडली,
ध्यान माहवारी से हटकर, गोल करने पर रहे,
ला रही खेलों में मेडल, हिन्द की जो बेटियाँ,
नैपकिन के नाम पर, अपमान उनका कर रहे।।
 
गर यही चलता रहा तो, दूर दिन वो भी नहीं,
नैपकिन कैसे लगाते, यह सिखाया जायेगा,
और इसके फायदों का जिक्र करने के लिए,
नारियों को मंच पर, नंगा दिखाया जायेगा।।
 
नग्नता, अश्लीलता अब बन गयी व्यापार है,
नारियाँ खुद नारियों की, आज इज्जत हर रहीं,
किस तरह उनको हितैषी, नारियों का मान लूँ,
बेटियों की माहवारी, पर जो धंधा कर रहीं।।
रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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95 हकीकत देखनी है तो

हकीकत देखनी है तो, हमारे गाँव में आओ।
गरीबी देखनी है  तो,  हमारे  गाँव में आओ।  
 
जहाँ धरती बिछौना है, जहाँ आकाश चद्दर है,
जहाँ मैले फटे कपड़े, जहाँ मलमल, न खद्दर है,
जहाँ पर जानवर, इंसान, इक छप्पर में’ होते है,
वहीं चौका, वहीं बैठक, वहीं सब लोग सोते हैं,
अगर ये देखना है तो, हमारे गाँव में आओ।।
 
जहाँ सूखा, जहाँ ओले, जहाँ सर्दी कटीली है,
जहाँ दुर्भाग्य का डेरा, जहाँ किस्मत हठीली है,
जहाँ कर्मठ को मेहनत का, कोई भी फल नहीं मिलता,
जहाँ पर मुश्किलें मिलतीं, जहाँ पर हल नहीं मिलता,
अगर ये देखना है तो, हमारे गाँव में आओ।।
 
जहाँ हर आदमी को सूदखोरी कर्ज में जकड़े,
जहाँ दुर्बल की छाती पर, हुकूमत कर रहे तगड़े,
जहाँ पैंबंद पे पैबंद हैं, जहाँ मैले फटे कपड़े,
जहाँ दारू, जहाँ सट्टा, जहाँ लफड़े, जहाँ झगड़े,
अगर ये देखना है तो, हमारे गाँव में आओ।।
 
जहाँ औरों के दीपक से, हुआ करता है घर रोशन,
जहाँ पर भूख होती है, जहाँ पर है नहीं भोजन,
जहाँ पकवान की बातें, फकत किस्सों में सुनते हैं,
जहाँ रोटी न मिलती है, मगर सरकार चुनते हैं,
अगर ये देखना है तो, हमारे गाँव में आओ।।
 
जहाँ पर सिर्फ शोषित हैं, जहाँ पर सिर्फ शोषण है,
जहाँ पर भुखमरी मिलती, जहाँ पर बस कुपोषण है,
जहाँ हैं पसलियाँ दिखतीं, कमर टेड़ी है यौवन की,
जहाँ पर भूख से व्याकुल, बुरी हालत है बचपन की,
अगर ये देखना है तो, हमारे गाँव में आओ।।
 
जहाँ मजदूर बंधक हैं, करे जो काम भट्टों पर,
उन्हीं का हक़ नहीं उनको, मिले सरकारी' पट्टों पर,
जहाँ सूखी पथेरन में, रती का रूप दिखता है,
जहाँ बालाओं की इज्जत, जहाँ कौमार्य बिकता है,
अगर ये देखना है तो, हमारे गाँव में आओ।।

जहाँ मध्‍याह्न भोजन को, खड़े बच्चे दिखा करते,
उसी में छिपकली, मेढक, जहाँ अक्सर मिला करते,
जहाँ टीचर को गिनती अरु, पहाड़े भी न आते हैं,
हमारे देश के बच्चों को, ये टीचर पढ़ाते हैं,
अगर ये देखना है तो, हमारे गाँव में आओ।।

रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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94 जलाकर मेरी बस्ती को

जलाकर मेरी बस्ती को, सुबह आकर बुझाते हो,
हमें दंगों में झुलसाकर, अमन का गीत गाते हो,
तुम्हें मतलब न हिन्दू से, न मतलब है मुसलमां से,
धर्म का नाम लेकर के, यहाँ झगड़े कराते हो।।
 
हमारी तंगहाली पर, फसल अपनी उगाते हो,
हमारी फूटी किस्मत पर, मुक़द्दर आजमाते हो
गरीबी, भुखमरी तुमने, किताबों में पढ़ी हरदम,
उन्हीं को सुनकर, पढ़कर के, हमें किस्से सुनाते हो।।
 
जरूरत के समय पर आ, हमें अपना बताते हो,
बनाते आ रहे उल्लू, अभी भी तुम बनाते हो,
मरें हम भूख से या फिर, गले में डाल कर फंदा,
हमारी लाश को कौओं सा, तुम मिल-बाँट खाते हो।।
 
हमारी ही बदौलत से, सुबह और शाम खाते हो,
मगर अफ़सोस है इतना, हमें तुम भूल जाते हो,
हमारी मौत की चर्चा से, तुमको वास्ता इतना,
उसी चर्चा की चर्चा कर, अजी चर्चा में आते हो।।
 
उदर की आग होती क्या, गरीबी क्या, ये क्या जानो,
जवानी में बुढ़ापा क्या, धँसी आँखों को क्या जानो,
मेरी फूटी कठौती से, तबे से, क्या तुम्हें मतलब,
रखी चूल्हे पे खाली इस, पतीली को क्या जानो।।
 
गगनचुम्बी मकानों को, जमीने चाहिए मेरी,
अमीरों को, दलालों को, जमीने चाहिए मेरी,
हमें छत भी मयस्सर न,  करा पायीं हैं सरकारें,
अरबपतियों को देने को, जमीने चाहिए मेरी।।
 
तुम्हें मलहम से क्या मतलब, तुम्हें तो चोट से मतलब,
तुम्हें अच्छों से क्या मतलब, तुम्हें तो खोट से मतलब,
तुम्हें कुछ फर्क न पड़ता, अजी ये जानते हम भी,
तुम्हें मतलब कहाँ हमसे, तुम्हें तो वोट से मतलब।।

रणवीर सिंह (अनुपम), मैनपुरी (उप्र)
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