Friday, September 28, 2018

610. सोचता हूँ कि अब (लेख)

610. सोचता हूँ कि अब (लेख)

सोचता हूँ कि अब यह कविता, सविता छोड़-छाड़कर बाबा बन जाऊँ। भारत में, आजकल बाबाओं का भविष्य बहुत उज्ज्वल दिख रहा है। बाबागीरी में ज्यादा खर्चा भी नहीं, केवल दो चार श्लोक, दो चार सूक्तियाँ, एक-दो कबीर, रहीम, रैदास, तुलसी, मीराबाई आदि के पद रट लो और थोड़ा-सा ज्ञान नीबुओं, समोसों, चटनियों के बारे प्राप्त कर लो, बस इतनी सामिग्री से काम चल जाएगा। वैसे भी आदमी को मितव्ययी होना चाहिए, खासकर उस चीज का, जो उस व्यक्ति के पास पहले से ही कम हो।

इसी के साथ, अगर दो-चार भजन गाने सीख लिए तो प्रभु की भक्ति के साथ-साथ, चेला-चेलियों की सेवा का लाभ भी प्राप्त होता रहेगा।

इतना भर कर लेने से मैं धर्म का और धर्म मेरा, लोग मेरे, नेता मेरे, सरकार मेरी, देश मेरा। इसके अलावा मुझ जैसे प्राणी को क्या चाहिए।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
28.09.2018
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