माँ
शिशु नौ मास उदर में रखकर, क्या-क्या कष्ट उठाती माँ।
उलटी, मिचली घबराहट सब, हँसकर के सह जाती माँ।
त्याग, समर्पण, सहनशक्ति का, नाम दूसरा है माता।
झेल भयानक प्रसव पीड़ा, शिशु को जग में लाती माँ।
अंधा, बहरा, लूला, लँगड़ा, सबको अंक लगाती माँ।
पहले पूरे घर को देती, स्वयं बाद में खाती माँ।
बच्चों की फरमाइश खातिर, निज पति से लड़ जाती है।
छोटी - छोटी आमदनी में, घर को रोज चलाती माँ।
महल, झोपड़ी, झुग्गी, तम्बू, सब बैकुंठ बनाती माँ।
जाने कितनी बाधाओं से, हर दिन है टकराती माँ।
देवी बनना बहुत सरल है, माँ से इसकी क्या तुलना।
करती जब सर्वस्व निछावर, तब जाकर बन पाती माँ।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
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