Sunday, October 07, 2018

614. दुमंजिला के चक्कर में (लेख)

614. दुमंजिला के चक्कर में (लेख)

कल गाँव से मेरे एक दोस्त का फोन आया तो मैंने उसका हालचाल पूछा। वह बोला क्या बताएं भाई साहब, काम-धाम कुछ चल नहीं रहा। घर में पैसों की बड़ी परेशानी है। इसी के चलते घर में रोज कोहराम मचा रहता है। कल रात को देर से घर आया तो पूछिये मत क्या हुआ।

मैं बोला यार तुम तो डबल एम.ए. हो, कहीं बाहर निकलकर देखो। लखनऊ पास में है वहीं चले जाओ, कुछ न कुछ काम मिल ही जायेगा। वह बोला अरे यार जब से विवेक तिवारी का कांड हुआ है तब से मेरी बीबी भी यही रट लगाए है कि जाओ लखनऊ में काम देखो, लखनऊ में काम देखो।

शायद वह यह सोचती है कि कहीं सौभाग्य से मैं लखनऊ पुलिस के सामने आ गया और किस्मत मेहरबान हो गयी तो वह करोड़पत्नी हो जाएगी। जितना मैं जिंदा रहकर पूरी जिंदगी में नहीं कमा पाऊँगा, उससे ज्यादा तो मरकर दे जाऊँगा।

पर वह भोली इतना भी नहीं जानती कि इस सरकारी लाभ के लिए लाश के साथ-साथ और भी योग्यताओं की जरूरत होती है, वह मैं कहाँ से लाऊँगा। रोज देखती है कि मरने को तो रोज हजारों मरते हैं, सबके सब करोड़पति थोड़े ही हो जाते हैं।

अरे नासमझ! काहे को दुमंजिला के चक्कर में झोपड़ी फूँकने पर तुली है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
07.10.2018
*****

No comments:

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.