Wednesday, October 31, 2018

621. अम्मा घर में एक थी (कुंडलिया)

621. अम्मा घर में एक थी (कुंडलिया)

माँ और आजकल उसकी दशा के बारे में दो कुंडलिया।

अम्मा  घर  में  एक  थी, अरु   बेटे  थे  चार।
हँसी-ख़ुशी से पल गए, सबको मिला दुलार।
सबको मिला दुलार, मात हर फर्ज निभाया।
प्रथम सभी को  दिया, बाद में खुद है खाया।
चाहे   रोगी  सबल,  होय  नादान   निकम्मा।
निज  संतानों  हेतु,  लड़ी  थी  सबसे अम्मा।

अब  भी   बेटे   चार  हैं, अरु अम्मा  है  एक।
लेकिन उसकी  जान को, रहे  हमेशा  क्लेश।
रहे  हमेशा  क्लेश, रोज  मन  ही  मन  रोती।
खुद ही खाय-बनाय, और खुद  कपड़े धोती।
बेटे  फूलें - फलें,  कामना   करती   तब  भी।
पुत्र,  पुत्र  ना  रहे,  मात  है  माता  अब  भी।

रणवीर सिंह (अनुपम)
30.10.2018
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Sunday, October 28, 2018

618. भोलों का है नहीं गुजारा (मुक्तक)

618. भोलों का है नहीं गुजारा (मुक्तक)

भोलों का है नहीं  गुजारा, भोले  बनकर  मत  रहना।
सहने की भी सीमा होती, उससे  ज्यादा  मत सहना।
नदिया-नालों के वादों पर, हाँ जी, हाँ जी मत कहना।
मंदिर-मस्जिद की बातों पर, भावों में आ मत बहना।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
28.10.2018
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Saturday, October 27, 2018

617. किसे है फिक्र अब (मुक्तक)

617. किसे है फिक्र अब (मुक्तक)

लोक कल्याण को छोड़कर, यूपी सरकार ने आजकल भवनों के रंग बदलने और नगरों के नाम बदलने का अभियान चला रखा है। हाल ही में मुगलसराय रेलवे स्टेशन और इलाहाबाद का नाम बदला गया। इसी पर एक मुक्तक।

617. किसे है फिक्र अब (मुक्तक)

किसे है फिक्र अब डीजल के बढ़ते दामों पर।
भरोसा  ही नहीं  उनको  उन्हीं  के  कामों पर।
सियासत आजकल रंगों के बल पे चलती  है।
छिड़ी  है  राज्य  में  हर ओर  जंग  नामों  पर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'।
27.10.2018
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Sunday, October 07, 2018

616. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते (लेख)

616. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते (लेख)

मन में बार-बार प्रश्न उठता है कि क्या पुस्तकों में लिखी अच्छी-अच्छी आदर्शवादी सूक्तियों को पढ़ने-पढ़ाने से भारतीय समाज में कुछ सकारात्मक बदलाव देखने को मिला। मुझे तो यह न के बराबर लगता है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो हजारों वर्ष पूर्व "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तंत्र देवता:" सूत्र रटने वाले, इसकी महिमा का बखान करने वाले और तत्कालीन समाज में उच्च हैसियत रखने वाले तथाकथित भद्र पुरुष सरस्वती, अहिल्या, तारा, मत्स्यगंधा, द्रोपदी, आम्रपाली आदि के साथ दुष्कर्म और दुराचार न करते। सोचने की बात यह है कि इस सबके बाबजूद दंडविधान के अनुसार ऐसे लोगों को उनके वर्ण से च्युति नहीं किया गया, उल्टे तत्कालीन धर्माधिकारियों द्वारा उनका महिमा मंडन किया गया।

हजारों वर्षों से "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तंत्र देवता:" सूत्र को भागवत कथा में सुनने-सुनाने से और वर्तमान में इसका भाषणों में जिक्र होने से तथा आये दिन टीवी पर चर्चा होने के बाद भी नारियों के प्रति हमारी सोच में कोई खास सकारात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है। हमारी सोच का स्तर आज भी उतना ही संकीर्ण है जितना पहले था। हम नारियों की महानता, महत्व का बखान आज भी वैसे ही करते रहते हैं जैसे पहले करते थे। परंतु सच्चाई यह है कि जब भी अवसर मिलता है उनका हर प्रकार से उपभोग किया जाता है। हम आज भी उनकी स्वतंत्रता, स्वाभिमान और स्वतंत्र अस्तित्व को सहन नहीं कर पाते। उनका सम्मान करना तो दूर, उनकी "न" को भी बर्दाश्त नहीं कर पाते।

समाज में आज भी नारियों का अस्तित्व उनके पति के अस्तित्व से जोड़कर देखा जाता है। उदाहरण स्वरूप आज भी कितनी नारियाँ ग्राम प्रधान होने के बाद भी खुद निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र नहीं हैं। ज्यादातर के निर्णय उनके नाम पर उनके पति लेते हैं। मजे की बात यह है कि इसके लिए उन्होंने एक प्रधानपति नाम से पद भी सृजित कर लिया है।

मैंने तो इस देश में नारियों का हर क्षेत्र में दोहन, उपभोग होते ही देखा, चाहे वह व्यापार हो, सिनेमा हो, टीवी हो, राजनीत हो, धर्मक्षेत्र हो, आस्था हो या धर्मगुरुओं के आश्रम हों। इन सबमें, धर्मक्षेत्र सारी मर्यादाएं तोड़ते हुए कोसों आगे निकल गया है। वर्तमान में कई तथाकथित नामीगिरामी धर्मगुरु, नारी को शक्ति-दुर्गा का रूप बताते, बताते, उसकी देह का उपभोग करने में भोग-विलास की सारी सीमाएं लांघ गए। यह बात अलग है कि अब वे जेल की दीवारें नहीं लांघ पा रहे।

रणवीर सिंह 'अनुपम'।
07.10.2018
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615. "नो मतलब नो" (लेख)

615. नो मतलब नो (लेख)

कई जगह लिखा देखा है कि "नो मतलब नो"। पर समझ में नहीं आया कि आखिर यह है क्या? फिर किसी ने एक दिन बताया कि यह एक स्लोगन है जो नारियों को उनके अधिकार और सम्मान तथा उनके उत्पीड़न या शोषण के विरोध में उन्हें "न" कहने के लिए हौसला देने की वकालत करता है। इस स्लोगन से लोगों को यह संदेश दिए जाने की कोशिश की गई है कि अगर कोई महिला किसी बात पर "न" बोलती है तो इसका मतलब "न" होता है और कुछ नहीं। अर्थात पूर्ण विराम और इसके आगे उस विषय पर कोई बात नहीं।

बात तो बिल्कुल ठीक है कि "न" का मतलब "न" ही होता है। पर इतनी महत्वपूर्ण बात को इस तरह घुमा-फिराकर कहने की क्या जरूरत थी। ऐसे किलिष्ट नारों को बनाने में इतनी महीन कारीगरी से क्या फायदा, जिसका मतलब समझने के लिए व्याकरण का अध्य्यन करना पड़े। अरे भाई, मेरे हिसाब से नारा सीधा और सरल होना चाहिए ताकि आम आदमी उसका संदेश समझ सके। जैसे "एक नारी, सौ पर भारी"।।

जहाँ तक इस स्लोगन की बात है, मैं हमेशा से यह समझता आया हूँ कि "न" का मतलब "न" होता है चाहे वह "न" किसी स्त्री का हो या पुरुष का। लेकिन इतनी सीधी और सरल बात को समझाने लिए इस नारे को गढ़ने का क्या औचित्य? ऐसा लगता है कि कुछ जगह, क्षेत्र या समाज ऐसे भी हैं जहाँ "न" का मतलब "हाँ" होता है।

यहाँ एक बात विचारणीय है अगर "न" का  मतलब "न" है तो फिर यह क्यों कहा जाता हैं कि कैसी भी परिस्थिति हो संवाद नहीं रुकना  चाहिए, यह हर हाल में जारी रहना चाहिए। मैंने तो यह भी सुना है कि हर समस्या का समाधान संवाद से ही मुमकिन है और व्यक्तियों के रिस्तों के बीच जमी बर्फ को पिघलाने के लिए संवाद जरूरी है।

जहाँ तक मेरी बात है तो मेरी बीबी तो हर रोज दिन में तीन-चार बार "न" बोल देती है। ऐसे में क्या मैं इसे अंतिम सत्य मान लिया करूँ या बातचीत के जरिए रिस्तों के बीच जम रही बर्फ को पिघलाने की कोशिश किया करूँ। जब से यह स्लोगन पढ़ा, तब से असमंजस पड़ा हूँ। समझ में नहीं आ रहा कि "नो" सही है या "यस" सही है।

सच कुछ भी हो पर एक बात जरूर समझ में आ गयी कि कुछ सरफिरे लोग बैठे-ठाले बेसिर-पैर के स्लोगन इस समाज में इस उम्मीद से उछालते रहते हैं कि पता नहीं कब कौन सिरफिरा उनके किस स्लोगन को पकड़ ले और वह विश्व पटल पर चर्चित हो जाए। तरस आता है लोगों के ऐसे बौद्धिक स्तर पर जिन्हें "न" का मतलब ऐसे समझना और समझाना पड़ रहा है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
08.10.2018
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614. दुमंजिला के चक्कर में (लेख)

614. दुमंजिला के चक्कर में (लेख)

कल गाँव से मेरे एक दोस्त का फोन आया तो मैंने उसका हालचाल पूछा। वह बोला क्या बताएं भाई साहब, काम-धाम कुछ चल नहीं रहा। घर में पैसों की बड़ी परेशानी है। इसी के चलते घर में रोज कोहराम मचा रहता है। कल रात को देर से घर आया तो पूछिये मत क्या हुआ।

मैं बोला यार तुम तो डबल एम.ए. हो, कहीं बाहर निकलकर देखो। लखनऊ पास में है वहीं चले जाओ, कुछ न कुछ काम मिल ही जायेगा। वह बोला अरे यार जब से विवेक तिवारी का कांड हुआ है तब से मेरी बीबी भी यही रट लगाए है कि जाओ लखनऊ में काम देखो, लखनऊ में काम देखो।

शायद वह यह सोचती है कि कहीं सौभाग्य से मैं लखनऊ पुलिस के सामने आ गया और किस्मत मेहरबान हो गयी तो वह करोड़पत्नी हो जाएगी। जितना मैं जिंदा रहकर पूरी जिंदगी में नहीं कमा पाऊँगा, उससे ज्यादा तो मरकर दे जाऊँगा।

पर वह भोली इतना भी नहीं जानती कि इस सरकारी लाभ के लिए लाश के साथ-साथ और भी योग्यताओं की जरूरत होती है, वह मैं कहाँ से लाऊँगा। रोज देखती है कि मरने को तो रोज हजारों मरते हैं, सबके सब करोड़पति थोड़े ही हो जाते हैं।

अरे नासमझ! काहे को दुमंजिला के चक्कर में झोपड़ी फूँकने पर तुली है।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
07.10.2018
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