578. गाँव सोचते आज हमारे (गीत)
गाँव सोचते आज हमारे,
दर पर आया कौन।
महुआ मद में चूर खड़ा है,
आँखें हैं अलसाई,
पीपल जामुन नीम सैंजना,
लेते हैं अँगड़ाई,
कटहल बेल अनारों का दल,
रस्ता रोज निहारे,
भेंटन को तैयार खड़ा है,
गन्ना बाँह पसारे।
उचक रही कन्नेर सलामी,
देते हैं सागौन।
हरियाली की ओढ़ के चूनर,
पगडंडी है निखरी,
जैसे नई-नवेली दुल्हन,
सजधज कर हो निकरी,
आस लगाए राह ताकती,
मन की गाँठ न खोले,
नयन पसारे उसे खोजती,
चुपके से बिन बोले।
उर के दरवाजे पर जबरन,
दस्तक देता जौन।
दरवाजे मुँह धोकर ठाड़े,
चारो ओर निहारें,
सतिये इत-उत देख रहे हैं,
दोऊ नयना फारें,
झोपड़ियाँ हिचकोले लेतीं,
बाँस-बल्लियाँ नाचें,
गली-मोहल्ले उत्साहित हैं,
बस्ती भरे कुलाचें।
उरई और औरैया झूमें,
झूम उठा जालौन।
जब से सुना आ रहे साजन,
हियरा लेत हिलोरें,
समझ न आये किस विधि अपने,
मन को बाँधें-छोरें,
हार ठिठोली करे वक्ष से,
इठलाते हैं झुमके,
यौवन भी बेकाबू दीखे,
देह लगाती ठुमके।
पायल चूड़ी कंगन खनके,
लेकिन बिछुआ मौन।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
12.07.2018
*****
No comments:
Post a Comment
Note: Only a member of this blog may post a comment.