584. कब तसले में चून रहा है (गीत)
कब तसले में चून रहा है,
कब चूल्हे में आँच रही है।
रहे ठिठुरते पूस रात्रि में,
जब तुम सोए ओढ़ रजाई,
तन पर ओले वर्षा झेली,
जेठ माह में देह तपाई।
कब मेहनत से हटते पीछे,
बोलो कब हम करी मनाही,
नहीं करोड़ों हमने चाहे,
सिर्फ फसल की कीमत चाही।
एक रही ये ही फरमाइश,
कब गिनती ये पाँच रही है।
टूटी छानी के जख्मों को,
आलीशान भवन क्या जानें,
जुगुनूँ भी सूरज होते हैं,
बात भला हम कैसे मानें।
मिथ्या की भी मर्यादा है,
मिथ्या की है सीमा रेखा,
कौन टिका कितना, शब्दों पर,
यह सब हमने भी है देखा।
किसमें कितना झूठ रहा है,
किसमें कितनी साँच रही है।
हर मसले पर देशभक्ति की,
अलख जगाने आ जाते हैं,
भूख प्यास की बात करें तो,
धर्म-जाति को ले आते हैं।
जब से हुए असहमत उनसे,
जब से बात नहीं है मानी,
तब से लूटा-पीटा जाता,
तब से होती खींचातानी।
तब से रोजहिं पुलिस हमारी,
झोपड़ियों को जाँच रही है।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
27.07.2018
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