हिंदी दिवस पर
835. सूर सूर तुलसी शशी (एक प्रश्न)
"सूर सूर तुलसी शशी, उडगन केशवदास।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकाश।"
अगर हम यह कहकर कुछ कवियों को मुकुट बनाकर शीश पर सजाने की बात करें और शेष को धूलि के बराबर महत्व दें तब हमारी बात पर कैसे और कितना भरोसा किया जाय, यह एक विचारणीय प्रश्न है। क्या इन्हीं तीन कवियों को पढ़कर लोक-कल्याण और हिंदी का उत्थान हो सकता है।
अगर ये ही तीन लोग मानव जाति के लिए प्रदीप्त स्तंभ हैं, तो फिर
"आचार्य हजारी प्रसाद, भारतेंदु हरिश्चंद्र, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, महावीर प्रसाद, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' सच्चिदानंद हीरानंद, महादेवी वर्मा, मैथलीशरण, सुमित्रानंदन प्रेमचंद, रामधारी सिंह दिनकर, कबीरदास, रहीमदास, अयोध्यासिंह उपाध्याय, अज्ञेय, आचार्य चतुरसेन आदि सारे के सारे हिंदी कवि और लेखक जुगनूं ही हैं।" क्या इसे सच माना जा सकता है?
हाय द्वेष तू जो भी कराए वह कम है।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
14.09.2019
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