दूर से आँखें मिलाकर लूट लिया।
मिले तो नज़रें झुकाकर लूट लिया।
पहले तो जलवा दिखाया हुश्न का,
और फिर जुल्फें गिराकर लूट लिया।
पास पहुँचे तो शिकायत ही मिली,
जब चले तो मुस्कराकर लूट लिया।
इतने से जब दिल नहीं उनका भरा,
नींद में नींदों को आकर लूट लिया।
जंगलों में जो लुटे वे और हैं,
मुझको तो घर पर बुलाकर लूट लिया।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
बुझे दिल में दिया फिर से, जलाना है नहीं आसां।
जिगर में व्याप्त दर्दो-गम, मिटाना है नहीं आसां।
बड़ा आसान है करना, बड़ी बातें बड़े वादे।
मगर शब्दों को दृढ़ता से, निभाना है नहीं आसां।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
कब से मैं तेरी चौखट पे, पलकों को बिछाए बैठा हूँ।
बाहर तो निकल ओ जाने जाँ, उम्मीद लगाए बैठा हूँ।
थक गयी नज़र अब तो मेरी, तेरे दीदार की ख़्वाहिश में।
जाने मैं दिलासा फिर भी क्यों, इस दिल को दिलाये बैठा हूँ।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
दिल तुम्हारा हो गया है, और तुमसे प्यार है।
ज़िंदगी में तुम नहीं तो, ज़िंदगी बेकार है।
पूछ मत हालत मेरी अब, ये बयां होती नही,
बिन तुम्हारे ज़िंदगी, हर पल मेरी दुश्वार है।
नाव ये तेरे भरोसे, डाल दी तूफान में,
तू ही है इसकी खिवैया, तू ही अब पतवार है।
क्या कहूँ, कितना कहूँ, कैसे कहूँ इस प्यार को,
तेरा हूँ बस सिर्फ तेरा, तेरा ही अधिकार है।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
बड़ी ख़्वाहिश थी, जिससे दिल लगाने की।
सभी जो छोड़कर, अपना जिसे बनाने की।
उसी ने दिल का, दीवाला निकाल डाला है।
आज हसरत है, उसको भूल जाने की।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
अरे ओ प्रेम के दुश्मन, मिटा दो तो तुम्हें जाने।
मुहब्बत के बिना जीना, सिखा दो तो तुम्हें जाने।
भुला इंसानियत हर ओर नफरत घोलने वालों।
बिना इस प्रेम के दुनियाँ, चला दो तो तुम्हें जाने।
रणवीर सिंह (अनुपम)
*****
प्यार के इजहार में इतनी भी जल्दी क्या,
प्रेमिका जो मार दे चप्पल उतारकर।
और इतने सब्र से कुछ भी न फायदा,
बन जाए बहन जो राखी को बाँधकर।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
फस्ट ऐड एक्जाम हेतु जब सेंटर आये।
पहले ही चालीस खड़े थे पंक्ति लगाये।
कुछ थे पैर पसार बेंच के ऊपर बैठे।
कुछ पुस्तक को लिए घूमते फिरते ऐंठे।
कोई उत्तर रटे, कोई अपने में खोया।
कोई है बेफिक्र, किसी ने मुँह ना धोया।
कोई गप्प में मस्त कोई इत - उत को टहले।
इसी बीच 'ए' ग्रुप का नंबर आया पहले।
गए महोदय एक और आदाब बजाया।
तभी डॉक्टर जी ने अपना प्रश्न उठाया।
क्या करेंगे आप? किसी ने जहर हो खाया।
हालत चिंताजनक मगर ना हो मर पाया।
प्रश्न जहर का जमा, मगर यह समझ न पाया।
ऐसा घटिया जहर देश ने क्यों बनवाया?
पहले खाएं जहर बाद में फस्ट ऐड दो।
दोहरा करके खर्च देश ओर और मेट दो।
मेरा बस जो चले ब्रांड को बंद करा दूँ।
भोगित का सब खर्च उसे मय ब्याज दिला दूँ।
इस बारे में सभी जगह प्रचार करा दूँ।
अच्छे विष के लिए नया टेंडर भरवा दूँ।
बिलकुल सही सुझाव, करो अब यहाँ पर साइन।
साइन जल्दी करो बहुत लंबी है लाइन।
लाइन लंबी बहुत सभी को है निपटाना।
चल रहा पेट खराब अभी जाना पाखाना।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
तू ने न छोड़ा यार मुझे किसी काम का।
क्या हाल तू ने कर दिया अपने गुलाम का।
सुबह - सुबह आपकी, ज़ुल्फों ने क्या किया।
चहुँओर लग रहा यूँ, मौसम हो शाम का।
नुक्कड़ पे कोई कह रहा, आई है कुछ शराब,
इसकी थी क्या जरूरत, तू दरिया है जाम का।
चर्चे सुने वहाँ के, जिन-जिन जगह से आए,
मुरझा गयी फिजां है, जीवन है नाम का।
जाना न इस शहर से, हम सब को छोड़कर,
अंजाम सोच लेना, यहाँ के अवाम का।
ऐसी नज़र को डाला, नज़ारा बदल गया,
किसको पता है अब, अपने मुकाम का।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
खुशियों भरा ये दिन, मेरे यार को मुबारक,
मेरे यार को मुबारक, मेरे प्यार को मुबारक।
आँखों में काजल की जगह, तुझको बिठाये जो,
जिसने बसाया दिल में, दिलदार को मुबारक।
चौखट जो फूलों की जगह, पलकें बिछाये है,
स्वागत को सिर झुकाये, उस द्वार को मुबारक।
टुकड़ा जो अपने दिल का, तुमको थमा रहा,
मौसम खुशी का उस, परिवार को मुबारक॥
*****
आज तक हैं खनखनाती चूड़ियाँ ये आपकी।
मेरे मन को हैं लुभाती चूड़ियाँ ये आपकी।
इस तरह स्पर्श मेरा हाथ तुमने था किया,
अब तलक हैं याद आती चूड़ियाँ ये आपकी।
आज भी है याद मुझको हाथ से चिपटी हुयीं,
किस तरह थी मुँह चिड़ाती चूड़ियाँ ये आपकी।
रात जब काली घनी थी चाँद भी छुपने लगा,
ऐसे में थी झिलमिलाती चूड़ियाँ ये आप की।
जिस जगह मशहूर शायर, हो गए चुपचाप थे,
उस जगह थी गुनगुनाती चूड़ियाँ ये आपकी।
जिस घड़ी ये दिल हमारा, गम में था डूबा हुआ,
उस घड़ी थी मुस्कराती चूड़ियाँ ये आपकी।
हर सितम मैंने तुम्हारा सह लिया हँसते हुये,
कसे-कैसे जुल्म ढातीं चूड़ियाँ ये आपकी।
न-न सुनकर आपकी जब, लौटकर जाता हूँ मैं,
तब इशारों से बुलाती चूड़ियाँ ये आपकी।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
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नाना विधि धोया अंगन को, मल-मल के तन स्नान कियो।
फिर समय उचित परिधान पहन, प्रभु का मन से गुणगान कियो।
आँगन में तुलसी को पूजा, हर्षित मन से जलदान कियो।
मन में ले कुशल कामना फिर, परदेशी पिय को ध्यान कियो।
श्यामल केशों का नीर छटक, फिर नूतन चोटी गुहि डाली।
कंगन, चूड़ी, झुमकी पहनी, फिर नाक में नवनथनी डाली।
मुख पे मयंक, कुंदन काया, ओंठों पे चमके कछु लाली।
सोलह श्रंगार करे गोरी, पिय अगवानी में मतवाली।
रणवीर सिंह 'अनूपम'
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कुण्डलिया
लाल लगाकर बत्तियाँ, रोज कर रहे तंग।
कभी दिखायें रौब को, कभी करें गुड़दंग।
कभी करें गुड़दंग कभी ये गुंडागर्दी।
सिर्फ दिखाते अकड़ दिखाते नहिं हमदर्दी।
मारपीट, लुटपाट करें भोंपू बजवाकर।
खुद को समझें खुदा बत्तियाँ लाल लगाकर।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
09.02.2017
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कुण्डलिया
आशा है अति बलवती, इसको रखिये पास।
आगे बढ़ते जाइये, लिए आस - विश्वास।
लिए आस-विश्वास, कर्म निज करते जायें।
करें उन्हें स्वीकार, मुश्किलें जो भी आयें।
दुविधा को दो त्याग, त्याग दो सभी निराशा।
जीवन है अनमोल, रखो आशा ही आशा।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
10.02.2017
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जीवन के इस खेल में, नहीं छोड़ना आस।
सौ हारों के बाद भी, खोना मत विश्वास।
खोना मत विश्वास, लक्ष्य की ओर चला चल।
हँसकर कर जा पान, मिले जो तुझे हलाहल।
होना नहीं निराश, त्याग सब संशय मन के।
धूप-छाँव, बरसात, सभी साथी जीवन के।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.02.2017
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सुलगती आग जल जाती, अगर थोड़ी हवा होती।
नहीं यों खेलते दिल से, अगर थोड़ी वफा होती।
तेरे पहलू में जी लेता, तेरे पहलू में मर लेता।
मुझे भी चैन मिल जाता, किसी की गर दुआ होती।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
12.02.2017
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कुण्डलिया
मंचों पर चिल्ला रहे, देंगे दशा सुधार।
गिनवाते उपलब्धियां, बनवा दो सरकार।
बनवा दो सरकार, कष्ट सारे हर लेंगे।
धन, दौलत, ऐश्वर्य, सभी से घर भर देंगें।
हमें नहीं विश्वास, तुम्हारे प्रपंचों पर।
कोरी यह उपलब्धि, बखानों मत मंचों पर।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
16.02.2017
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कुण्डलिया
अपनी-अपनी जीत का, सभी अलापें राग।
गिना - गिना उपलब्धियां, छुपा रहे हैं दाग।
छुपा रहे हैं दाग, लड़ रहे कुर्सी खातिर।
करें दोगली बात, चाल इनकी है शातिर।
मन संशय से घिरा, लाज अबकी नहिं बचनी।
फिर भी बातें करें, जीत की अपनी-अपनी।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.02.2017
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रूप सागर से' नज़रों की' गागर भरूँ।
तेरी गलियों हरवक्त घूमा करूँ।
जिसको' काशी में' मरना मरे शौक से।
है तमन्ना मेरी' तेरे' दर पर मरूँ।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.02.2017
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फरवरी 2017 में उत्तर प्रदेश में चल रहे चुनावों के लिए
फरवरी 2017 में उत्तर प्रदेश में चल रहे चुनावों के लिए हो रही रैलियों पर एक रचना।
देश के इन कर्णधारों, को लगा क्या रोग है।
कामक्रोधी, लालची ये, वृत्ति में बस भोग है।
क्यों गिनाते हैं नहीं ये, राजनेता काम को।
उल्टियां वादों की करते, दिन दुपहरी शाम को।
बात गदहों और कब्रिस्तान की है हो रही।
जिंदगी लाचार हो फुटपाथ पर है सो रही।
आदमी दोयम हुआ, अब्बल हुए मुर्दे यहाँ।
सोचिये यह सोच लेकर, जा रहे नेता कहाँ।
हो गए वादे बहुत अब, आप यह बतलाइये।
किस तरह पूरे करेंगे, यह जरा समझाइये।
इन हवाई योजनाओं, के लिए है धन कहाँ?
कौन सा वो राज्य है ये, सहुलियत दे दी जहाँ।
मत दुहाई स्वच्छता की, इस तरह से दो हमें।
कौन कितना साफ साथी, ये पता सब है तुम्हें।
कौन से दल में उच्चके, भ्रष्ट, ठग, कातिल नहीं।
देख लो आयोग में जा, दूर मत जाओ कहीं।
बन रहे जिनके हितैषी, जिंदगी उनकी जियो।
बोतलों को छोड़ पानी, पोखरों का तुम पिओ।
मर रहे बदहाल हैं जो, उन किसानों से मिलो।
बिक रहा जिनका है आलू, इक रुपैया प्रति किलो।
अब तलक जुमले सुनाकर, मन भरा नहीं आपका।
इसलिए हो तुम सुनाते, किस्सा बेटे - बाप का।
किस तरह कह दूँ हिमालय, है जो टीला रेत का।
उर्वरा होता नहीं है, रेउ ऊसर खेत का।
फेंटना अब बंद करिये, ताश की ये गड्डियां।
शब्द की जादूगरी ये, और ओछी फब्तियां।
भाषणों से पेट किसका, आज तक स्वामी भरा।
क्या मिला उस व्यक्ति को जो, पंक्ति में लगकर मरा।
देशभक्ती यूँ दिखाने, का तमाशा मत करो।
चालबाजी छोड़ दो, खामोश जनता से डरो।
मत समझिये अक्ल केवल, डेढ़ टोला थी यहां।
एक है तुमको मिली अरु, शेष में सारा जहां।
औषधालय देखिये जा, क्यों न ये जनता मरे।
जिस तरह से डॉक्टरों का, काम इक स्वीपर करे।
हो सुखी मातृत्व कैसे, किस तरह बचपन खिले।
रोग से जब ग्रस्त हैं खुद, देश के सारे जिले।
राशनों के केंद्र पर जा, पंक्ति में लग देख लो।
बीस के बदले में केवल, पा सकोगे दस किलो।
एक दिन तहसील में जा, तुम खतौनी लीजिये।
बाद उसके मंच पर आ, भाषणों को दीजिये।
नाम मनरेगा में सौ का, काम पर बस बीस हैं।
कोइ भी पीछे नहीं है, सब यहाँ इक्कीस हैं।
उज्ज्वला का भी कनेक्शन, एक दिन ले देखिये।
बाद में श्रीमान फिर ये, लंबी चौड़ी फेंकिये।
इंदिरा आवास की भी, दास्तां सुन लीजिये।
चेक जो लेना अगर तो, चौथयाई दीजिये।
और क्या-क्या मैं गिनाऊँ, हैं बहुत दुश्वारियाँ।
भुखमरी, बीमारियां, लाचारियां, बेकारियाँ।
खामियां खुद की न दिखतीं, सब कमीं हैं और में।
किस कदर भाषा गिरी है, इस चुनावी दौर में।
सिर्फ वादे, सिर्फ वादे, सिर्फ वादे ही दिखें।
शब्द ओछे, सोच ओछी, देखकर अब क्या लिखें।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.02.2017
*****
कुण्डलिया छंद
गोरी नीर उड़ेलकर, भिगो रही निज गात।
नीर दूधिया देह पर, रुकने को ललचात।
रुकने को ललचात, भाग्य से नहिं लड़ पाये।
खीजत औ खिसियात, लुढ़कता नीचे जाये।
लूटत चैन करार, हाय है कितनी भोरी।
जल को रही जराय, देह जा गोरी-गोरी।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
25.02.2017
*****
चार आने का काम करें नहिं, सोलह आने खा लेते।
झोपड़ियों को तोड़ ताड़कर, ऊँचे महल बना लेते।
कुछ भी पद का ख्याल नहीं है, नाहीं शब्दों पर अंकुश।
काश खुदा ये बनने वाले, इंसानी कद पा लेते।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
04.03.2017
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पाँच बरस में एक बार ही, जनता से ये बतियाते।
अपने मुँह से अपनी महिमा, खुद ही मंचों पर गाते।
दीमक बन ये चाट रहे हैं, काम करें नहिं धेले का।
सुई बराबर खर्च करें ये, हजम निहाई कर जाते।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
04.03.2017
*****
कुण्डलिया छंद
भौजी भजतीं फिर रहीं, भ्रात नशे में चंग।
दोनों सिगरे घेर में, करत फिरें हुड़दंग।
करत फिरें हुड़दंग, हाथ भाभी नहिं आतीं।
उछल-कूद कर रहीं, भाज वे इत-उत जातीं।
लड़खड़ात फिर रहे नशे में, भैया फौजी।
कोशिश करीं हजार, हाथ नहिं आईं भौजी।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.03.2017
भजतीं - भागतीं
सिगरे - पूरे
घेर - आँगन, अहाता
भाज - भाग
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कुण्डलिया छंद
रड़ुआ नाचत फिर रहे , चढ़ा रखी है भंग।
गलियन में घूमत फिरें, मचा रहे हुड़दंग।
मचा रहे हुड़दंग, नशे में डगमग डोलें।
सबके सब मदमस्त, चंग में बमबम बोलें।
गोरी जो मिल जाय, ठूँस मुँह में दें लड़ुआ।
नीली-पीली करे बिना, छोड़त नहिं रड़ुआ।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.03.2017
रड़ुआ - जिस पुरुष की उम्र हो जाने पर भी शादी न हुई हो
लड़ुआ - लड्डू
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कुण्डलिया
भैया ने भौजी तरफ, कदम बढ़ाये चंद।
भौजी भजके घुस गयीं, करी कुठरिया बंद।
करी कुठरिया बंद, भ्रात कहें बाहर आवौ।
दुइ बच्चन की मात, बन गई तऊँ लजावौ।
कढ़ते ली गुफियाय, लगावें रँग मनमौजी।
रगड़-रगड़कर लाल, करीं भैया ने भौजी।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.03.2017
कुठरिया - कमरा
तऊँ - तब भी
कढ़ते - निकलते
गुफियाय - बाहों में कस ली
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कुण्डलिया
भौजी भैया से कहें, करो शरारत बंद।
ऐसे मलो गुलाल मत, खुलिये चोलीबंद।
खुलिये चोलीबंद, पिया मत और सताओ।
भैया बोले आज, इस तरह मत शरमाओ।
भाभी हँस-हँस कहें, चुप रहो अह मनमौजी।
यह सुन लीं गुफियाय, फेरि भैया ने भौजी।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.03.2017
गुफियाय - बाहों में कस ली
फेरि - पुनः
*****
फागुन का महिना लगा, हर कोई मदमस्त।
भाभी का रँग-रूप लख, भैया जी हैं पस्त।
भैया जी हैं पस्त, हाथ भौजी नहिं आवैं।
उल्टी सज-धज सँवर, रोज भइयै ललचावैं।
हँस-हँस भौजी कहें, जानती तुम्हरे अवगुन।
तब से अति धर रहे, लगो है जब से फागुन।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.03.2017
अति - ऊधम
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कुण्डलिया
रसिया रस छलकाउ मत, समझूँ तुम्हरे ढंग।
तुम हो छूना चाहते, मेरा गोरा अंग।
मेरा गोरा अंग, रँगन चाहत मनमौजी।
जानूँ जिय को हाल, कहें भैया से भौजी।
समझूँ मैं हर बात, दूर रहियो मनबसिया।
व्यर्थ रहे छलकाय, कीमती रस जू रसिया।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
11.03.2017
जू - यह
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कुण्डलिया
मत तड़फाओ इस तरह, मेरी प्राणाधार।
अब तो अपने लाज का, घूँघट देउ उतार।
घूँघट देउ उतार, रूप यह जी भर देखूँ।
मदिरालय का मद्य, आज फिर पीकर देखूँ।
लूटा चैन करार, तरस इस दिल पर खाओ।
होली के दिन आज, प्रियतमा मत तड़फाओ।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
12.03.2017
*****
कुण्डलिया
दशों दिशाएं झूमती, सुना रहीं हैं फाग।
अलि कलियों की देह में, जगा रहा अनुराग।
जगा रहा अनुराग, पपीहा पिउ-पिउ बोले।
मादकता उर लिए, पवन बहकी सी डोले।
सेमल, आक, अनार, आम महुआ बौराएं।
फागुन का गुणगान, कर रहीं दशों दिशाएं।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
12.03.2017
*****
कुण्डलिया
भँवरे कर-कर थक गए, कलियों से मनुहार।
पर कलियाँ नहिं कर सकीं, लज्जावश इजहार।
लज्जावश इजहार, मचे अंतर में हलचल।
बहुत दिनों तक कौन, पी सका विरह हलाहल।
प्रेमी जब हो द्वार, प्रेयसी क्यों नहिं सँवरे।
कलियों के पट खुले, हो गए व्याकुल भँवरे।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
13.03.2017
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कुण्डलिया
भौजाई ने भर दई, गुजियन भीतर भाँग।
भैया उठकर भोर से, लगा रहे हैं बाँग।
लगा रहे हैं बाँग, भ्रात खटिया पर लेटे।
बाबा ठोंके ताल, जांगिया लाल समेटे।
चच्चा चाची समझ बुआ की गही कलाई।
सभी भंग में चंग, करो का जू भौजाई।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
14.03.2017
*****
छोड़ दे ओछे करम सब, दास तू जिसका हुआ।
मैं भी' हूँ खिसका हुआ कुछ, तू भी' है खिसका हुआ।
तेरा' मेरा कुछ नहीं फिर, किसलिए संचय करे।
बाद जाने के बता तू, यह जगत किसका हुआ।
जो यहाँ जैसा करेगा फल यहाँ वैसा चखे।
आदमी होकर खुदाई के अहम को क्यों रखे।
शान शौकत, पद प्रतिष्ठा छूट सब जाते यहीं।
कुछ नहीं मेरा यहाँ पर कुछ नहीं तेरा सखे।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
17.03.2017
*****
कुण्डलिया
जी भर कर देखूँ उसे, नहीं कामना अन्य।
कहाँ मिले सौंदर्य यह, यौवन यह लावण्य।
यौवन यह लावण्य, रूप अति प्यारा लागे।
भंग होय वैराग्य, कामना मन में जागे।
जल तरंग सी देह, करे आंदोलित अंतर।
जाग उठे उत्साह, देख ले जो भी जी भर।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
18.03.2017
*****
कुण्डलिया
काठ की' हंडी, है सुना, चढ़ती एकहि बार।
मगर आजकल हिंद में, चढ़ रहि बारम्बार।
चढ़ रहि बारम्बार, दायरा बढ़ता जाये।
बुद्धिमान हैरान, समझ में कुछ नहिं आये।
पड़े बौद्धिक आँच, देश की जब भी ठंडी।
एक नहीं दस बार, चढ़ेगी काठ की' हंडी।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
19.03.2017
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कवित्त
बरसा निकल गयी, शीत भी गुजर गया,
विरहा अनल हँस, सह गयीं चूड़ियाँ।
फागुन भी चला गया, पिया घर आये नहीं,
मन को मसोस फिर, रह गयीं चूड़ियाँ।
दिल की तड़फ और, हियरा की पीर सब,
चुपचाप मूक रह, कह गयीं चूड़ियाँ।
देह रंग रूप संग, आस औ उमंग संग,
यौवन श्रृंगार संग, ढह गयीं चूड़ियाँ।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
कुण्डलिया
चोर लफंगे हर जगह, गाँव, शहर या राज्य।
इनकी तूती बोलती, इनका है साम्राज्य।
इनका है साम्राज्य, राष्ट के यह निर्माता।
ये ही पालनहार, यही हैं भाग्यविधाता।
राहजनी, लुटपाट, करायें कौमी दंगे।
खूब रहे फल - फूल, देश में चोर लफंगे।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
23.03.2017
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भला क्यों इस तरह तुम पर, चढ़ा है रंग वोटों का।
दिखाई जो नहीं देता, तुम्हें ये घाव चोटों का।
बड़े सपने, बड़े वादे, बड़ों के हो हितैषी तुम,
बड़ों से कब तुम्हें फुर्सत,करो जो ख्याल छोटों का।
हुआ जब जुल्म शोषित पर, उठाई कब हैं' आवाजें,
अभी तक याद है तन को, कहर बेरहम सोटों का।
तुम्हें गुंडे, तुम्हें डाकू, तुम्हें भी चोर प्यारे हैं,
तभी तो घर बुलाकर के, किया सम्मान खोटों का।
सियासत में कलाबाजी, भी' होती है हुनर लोगो,
जमाना दलबदलुओं का, जमाना है ये' लोटों का।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
25.03.2017
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मज़मून :-151 "नव रात्रि विशेष आयोजन"
(चयन हेतु नहीं)
नमो शैलपुत्री, कृपा तुम करो माँ।
जगत में पधारो, दुखों को हरो माँ।
करूँ वंदना मैं, ब्रह्मचारिणी माँ।
तुम्हीं माँ खिवैया तुम्हीं तारिणी माँ।
करो दूर माँ, चंद्रघण्टा अँधेरे।
तमों के करो दूर, बादल घनेरे।
नमन कूष्माण्डा, दयादृष्टि रखना।
सुरक्षित, सुशोभित, सभी सृष्टि रखना।
हरो पीर मन की, हे स्कंदमाता।
करो शुद्ध अन्तर, तुम्हें मात ध्याता।
सुमिरता तुम्हें विश्व, कात्यायनी माँ।
करो दूर भय, केसरीवाहिनी माँ।
दमन माँ करो, आसुरी शक्तियों का।
चमत्कार कर, ईश्वरी शक्तियों का।
धरो रूप तुम रौद्र, हे कालिका माँ।
सुरक्षित रहे हर, यहाँ बालिका माँ।
भवानी, महागौरि, शंभूप्रिया तुम।
डरूँ मात क्यों जब अभय दे दिया तुम।
नमो सिद्धिदात्री, यही प्रार्थना है।
सभी हों कुशल, माँ यही कामना है।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
31.03.2017
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कवित्त
जटा बीच गंगा साजे, भाल चन्द्रमा विराजे,
देह पे भभूति सोहे, कंठ नाग माला है।
अविनाशी आदि हैं जो, स्वयं भू अनादि हैं जो,
हाथ में त्रिशूल धारे, सोहे मृगछाला है।
वाम बैठी गौरा प्रिये, गोद में गणेश लिये,
नंदी पे सवार तीनों, रूप भी निराला है।
प्राणियों के प्राणाधार, सृष्टि के हैं मूलाधार
खोलेते त्रिनेत्र कढ़े, मृत्युरूपी ज्वाला है।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
रोशनी बन जिंदगी का, तम मिटाया आपने।
मेरे दिल का कोना-कोना, जगमगाया आपने।
खिडकियाँ, दीवार, पर्दे, थे सभी पर घर न था।
आगमन कर इस मकां को, घर बनाया आपने।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
*****
कुण्डलिया
देह लचकती देखकर, लता भर रही आह।
पीपल, ढाक, बबूल सब, इसके मूक गवाह।
इसके मूक गवाह, पुष्प मन में सँकुचाये।
जामुन, कटहल, नीम, आम, महुआ बौराये।
गेंदा और गुलाब, कभी कन्नेर उचकती।
जग बौराया जाय, देखकर देह लचकती।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
31.03.2017
*****
कुण्डलिया
रूप तुम्हारा देखकर, प्रकृति हुई मदहोश।
नहिं जाने क्या सोचकर, रह जाती खामोश।
रह जाती है खामोश, मूक बन देह निहारे।
करे स्वयं से द्वन्द, स्वयं से लड़-लड़ हारे।
धरा, गगन निर्जीव, सिंधु जम गया बिचारा।
नभ-जल-थल खामोश, देख ये रूप तुम्हारा।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
02.04.2017
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कुण्डलिया
ग़ालिब के दो शेर पढ़, काहे बनता शेर।
छंद, बहर, गण, वज्न से, मत ऐसे मुँह फेर।
मत ऐसे मुँह फेर, बेतुका लगा न रट्टा।
समझ शब्द का भाव, लिखे मत यूँ सरपट्टा।
बकरी दुहना सीख, पूत सुन तू हालिब के।
काहे ग़ालिब बने शेर, दो पढ़ ग़ालिब के।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
03.04.2017
हालिब - दूध दुहनेवाला।
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जर्जर चप्पल
देख नजर भर तू जरा, इस चप्पल का हाल।
चार - चार टुकड़े हुए, जर्जर तन बेहाल।
जर्जर तन बेहाल, बेल्ट टूटी आगे से।
बड़े हुनर से इसे, गांठ रक्खा धागे से।
भाग्यविधाता देख, एक दिन इस पहन कर।
यही देश का सत्य, इसे तू देख नजर भर।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
14.04.2017
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गाल थोथे यूँ बजाने, से भला होगा नहीं।
झूठी हमदर्दी दिखाने, से भला होगा नहीं।
आदमी जो बात बदले, रोज कपड़ों की तरह,
ऐसे को अपना बनाने, से भला होगा नहीं।
जब धवल वस्त्रों के भीतर, कालिमा का वास हो,
ऊपर से यूँ जगमगाने, से भला होगा नहीं।
लब्ज औ करतूत में, कोसों का जिसके फर्क हो,
उसके जयकारे लगाने, से भला होगा नहीं।
आज तक जिन कार्यक्रमों, से बदल पाया न कुछ
इनको आगे यूँ चलाने, से भला होगा नहीं।
प्यास के मारे हुए को, नीर की दरकार है,
खारे सागर से मिलाने, से भला होगा नहीं।
राग जो अम्बेडकर का हैं अलापे जा रहे,
उनके यूँ माला चढाने, से भला होगा नहीं।
रणवीर सिंह (अनुपम)
14.04.2017
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कल हमारा भक्त था जो, अब तुम्हारा भक्त है।
छद्मभेषी, छलकपट सँग, झूठ का अभ्यस्त है।
आदमी तो बन न पाया, पर खुदा बनता फिरे।
राजसत्ता के नशे में, चूर है, मदमस्त है।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
15.04.2017
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दिलों में घोलकर नफ़रत, दया की बात करते हो।
दगा देकर के किस मुँह से, दुआ की बात करते हो।
क़त्ल बच्चों का करवाकर, हमें दंगों में मरवाकर,
कलेजा चाक करके अब, दवा की बात करते हो।
दरख्तों को मिटाकर के, धरा बंजर बनाकर के,
वनों को यूँ जलाकर के, हवा की बात करते हो।
जना जिसने उसी औरत, को जीने तक नहीं देते,
मगर मंचों पे ईश्वर की, खुदा की बात करते हो।
नुमाइश जिस्म की करके, गिराओ स्वयं का दर्जा,
बड़ी ही बेहयायी से, हया की बात करते हो।
तुम्हारी बात पर कोई, भरोसा भी करे कैसे,
हमेशा बेवफाई से, वफ़ा की बात करते हो।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
16.04.2017
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मसीहा बुद्ध की बातें, भला कब ये सुनी दुनिया।
भली जितनी समझता हूँ, नहीं इतनी भली दुनिया।
हमारा रहनुमा था जो, उसी ने राहजनी कर ली,
उसी के हाथ से देखो, हमारी ये लुटी दुनिया।
सभी कुछ दे दिया तुमको, बताओ और क्या दूँ मैं,
वतन यह आपका साहब, कहाँ है ये मेरी दुनिया।
जिसे अपना समझता तू, अरे कल तक ये मेरा था,
यही कल और का होगा, बड़ी है मतलबी दुनिया।
तुम्हारी ही वजह से यह, समूची सृष्टि रोशन है,
तुम्हीं से ये चले दुनिया, तुम्हीं से ये बची दुनिया।
हमेशा जिस्म को चाहा, करी कब प्रेम की इज्जत,
हसीनों होश में रहना, बड़ी है मनचली दुनिया।
नदी, पर्वत, कफ़न, मिट्टी, खदानें, पेड़ औ पर्वत,
बड़े ही चाव से सब कुछ, है खाने में लगी दुनिया।
कुलों का नाम लेकर के, कुलाँचें मत भरो इतनी,
अरे पाखंडियो तुमने, हमेशा ही छली दुनिया।
मेरा साथी समझता है, अक्ल बस डेढ़ तोला थी,
मिली है एक उसको और आधी में बची दुनिया।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
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देशभक्ति के बहाने जो-जो हुड़दंग करें,
ऐसे हुड़दंगियों की शिक्षा होनी चाहिए।
जन्मजात श्रेष्ठता का पाले हुए दंभ हैं जो,
इन ज्ञानवानों की परीक्षा होनी चाहिए।
धर्म और जाति पे लड़ाते आये देश को जो,
किये हर कार्य की समीक्षा होनी चाहिए।
खुदा के करीबी इन मुल्ला और पंडितों को,
आदमी बनाने हेतु दीक्षा होनी चाहिए।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
29.04.2017
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