Saturday, January 04, 2020

848. इधर की बात होती है (मुक्तक)

848. इधर की बात होती है (मुक्तक)

इधर  की  बात  होती  है, उधर  की  बात  होती  है।
अगर  होती  नहीं तो बस, यहाँ पर  बात  रोटी  की।
चलो  मैं   मान  लेता  हूँ, उदर  की  जात  होती  है।
मगर यह भी बताओ तो, कि क्या है जात रोटी की।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
04.01.2020
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847. साँप-छछूँदर से हुए (कुंडलिया)

847. साँप-छछूँदर से हुए (कुंडलिया)

साँप-छछूँदर से हुए, साहब  और  विधान।
निगलें तो जां जा रही, उगलें  तो  सम्मान।
उगलें  तो  सम्मान, शान  पर  लागे  बट्टा।
बादशाह पर  हँसे, हर  तरफ  सत्ता अठ्ठा।
आन-बान का भूत, चढ़ा है सिर के ऊपर।
ऐसे-कैसे  भला, छोड़  दे   साँप  छछूँदर।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
25.12.2019
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845. राजनीत ने कब किया (कुंडलिया).

845. राजनीत ने कब किया (कुंडलिया)

राजनीत  ने  कब  किया, पगले  तेरा  ख्याल।
लुटे-पिटे   या  तू   मरे,  इसको  नहीं  मलाल।
इसको नहीं  मलाल, निरंकुश  खल  हत्यारी।
इसकी शह पर पुलिस, सचिव, नोचे पटवारी।
दुश्मन  ने  भी  ठगा,  ठगा  है  तुझे  मीत  ने।
किसका कीन्हा भला, आजतक  राजनीत ने?

रणवीर सिंह 'अनुपम'
24.12.2019
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844. बोते खुद ही आप जब (कुंडलिया)

844. बोते खुद ही आप जब (कुंडलिया)

बोये   पहले   आप   ही, अफवाहों   के   बीज।
अब जब जनता बो रही, तब क्यों गुस्सा-खीज।
तब  क्यों  गुस्सा-खीज, किसलिए  दोषारोपण।
विषबेलों  का  आप, स्वयं  जब  कीन्हा पोषण।
नागफली  फल-फूल उठी, तो  अब  क्यों  रोये।
फूल   कहाँ   से  मिलें, आप  जब   काँटे  बोये।

21.12.2019
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