Saturday, December 31, 2016

315. तुमने ही दुर्दिन दिए

315. तुमने ही दुर्दिन दिए रे विधना

तुमने ही दुर्दिन दिए रे विधना,
तुम ही होउ सहाय जी।
किस विधि प्रीतम से मिलूँ रे विधना,
कछु तौ देउ बताय जी।

ऐसी' प्रीत  की आगरी रे गोरी,
लिख न करारे बोल जी।
रच-रच के आँखर लिखो रे गोरी,
धरउ करेजा खोल जी।

काहे की पाती करूँ रे सुअना,
काहे'  की' कलम दबात जी।
काहे की स्याही करूँ रे सुअना,
कछुह समझ नहिं आत जी।

चुनर फारि पाती करो रे गोरी,
अँगुली कलम-दबात जी।
हियरा की बातें लिखो रे गोरी,
जो मन आबत-जात जी।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
30.12.2016
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Friday, December 30, 2016

313. काहे का यौवन अरे (कुण्डलिया)

काहे  का  यौवन  अरे,  काहे  का   रँग - रूप।
माटी  में  इक दिन  मिलें, चारण हों  या  भूप।
चारण हों  या भूप,  काल  सबको  है भखता।
सद्कर्मों के बिना, याद जग  किसको रखता।
राजपाट, धन-धान्य,  व्यर्थ पद, वैभव, गौधन।
बिना  लोक  कल्याण, अरे  काहे  का  यौवन।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
30.12.2016
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312. नख़रे मत दिखला अरे (कुण्डलिया)

नख़रे मत  दिखला अरे, ओ  नखरीली नार।
भृकुटी  ये खंजरनुमा, होय  जिगर के  पार।
होय जिगर के पार,  तीर  सी  तेरी चितवन।
ऊपर  से  मुस्कान, करे है  घायल  तन-मन।
हाँ करके फिरजाय, बात ये  दिल में अखरे।
ओ  नखरीली  नार,  दिखा मत  ऐसे नख़रे।

रणवीर सिंह 'अनुपम'
30.12.2016
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